Saturday, October 30, 2010

रश्मिरथी

With special thanks to Sharma Ji,
From 'Rashmirathi' by the great Hindi poet - Shri Ramdhari Singh 'Dinkar'...

प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ न होता है, कंचन पर कभी न सोता है|

बसता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में|

उड़ते जो झंझावातों में, पीते जो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जिनका, विषधर भुजंग भोजन जिनका|

वे ही फणिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं|

होकर समृद्धि-सुख के अधीन, मानव होता नित तप:क्षीण,
सत्ता, किरीट, मणिमय आसन, करते मनुष्य का तेज हरण |

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